हिन्दी और मैं

Saturday, April 04, 2009

झाँसी की रानी

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


(अंकित के ब्लौग से उद्घृत)

Friday, April 28, 2006

‘नासदीय सूक्त’ - ऋग्वेद

सृष्टि से पहले सत नहीं था, असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था।
छिपा था क्या कहाँ, किसने ढका था
उस पल तो अगम, अटल, जल भी कहाँ था

सृष्टि का कौन है कर्ता कर्ता है वा अकर्ता
ऊंचे आकाश में रहता सदा अध्यक्ष बना रहता
वही सचमुच में जानता, या नहीं भी जानता
है किसी को नहीं पता नहीं पता नहीं है पता नहीं है पता

वह था हिरण्यगर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान
वही तो सारे भूतजात का स्वामी महान
जो है अस्तित्वमान धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर

जिस के बल पर तेजोमय है अम्बर
पृथ्वी हरी भरी स्थापित स्थिर
स्वर्ग और सूरज भी स्थिर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर

गर्भ में अपने अग्नि धारण कर पैदा कर
व्यापा था जल इधर उधर नीचे ऊपर
जगा चुके वो ऐकमेव प्राण बनकर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर

ॐ! सृष्टि निर्माता स्वर्ग रचियता पूर्वज रक्षा कर
सत्य धर्म पालक अतुल जल नियामक रक्षा कर
फैली हैं दिशाएँ बाहू जैसी उसकी सब में सब पर

ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर
ऐसे ही देवता की उपासना करें हम हवि देकर

(रोहित के ब्लौग से उद्घृत)

पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे, हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।

मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जावें वीर अनेक।

- माखनलाल चतुर्वेदी

(रोहित के ब्लौग से उद्घृत)

Tuesday, January 10, 2006

शक्ति और क्षमा

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल,
तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके,
पीछे जब जगमग है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को,
जिसके पास गरल हो,
उसका क्या जो दंतहीन,
विषहीन, विनीत, सरल हो।

- रामधारी सिंह दिनकर

कदम्ब का पेड़

यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ, होता यमुना तीरे,
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।
ले देतीं यदि मुझे बाँसुरी तुम दो पैसे वाली,
किसी तरह नीचे हो जाती यह कदम्ब की डाली।

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर, मैं चुपके-चुपके आता,
उस नीची डाली से अम्मा, ऊँचे पर चढ़ जाता।
वहीं बैठ फिर बड़े मज़े से मैं बांसुरी बजाता।
'अम्मा-अम्मा' कह वंशी के स्वर में तुम्हें बुलाता।

सुन मेरी वंशी को माँ, तुम इतनी खुश हो जातीं,
मुझे देखने काम छोड़कर तुम बाहर तक आतीं।
तुमको आया देख बाँसुरी रख मैं चुप हो जाता,
पत्तों में छिपकर धीरे से फिर बाँसुरी बजाता।

तुम हो चकित देखतीं चारों ओर, न मुझको पातीं,
तब व्याकुल-सी हो कदम्ब के नीचे तक आ जातीं।
पत्तों का मर्मर स्वर सुन जब ऊपर आँख उठातीं,
मुझको ऊपर चढ़ा देखकर कितना घबरा जातीं।

गुस्सा होकर मुझे डाटतीं, कहतीं नीचे आजा,
पर जब मैं न उतरता, हँसकर कहतीं - "मुन्ने राजा,
नीचे उतरो मेरे भैया! तुम्हें मिठाई दूँगी।
नये खिलौने माखन मिश्री दूध मलाई दूँगी।"
मैं हँस कर सबसे ऊपर की टहनी पर चढ़ जाता,
एक बार 'माँ' कह पत्तों में वहीं कहीं छिप जाता,
बहुत बुलाने पर भी माँ, जब मैं न उतरकर आता।
तब माँ, माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।

तुम आँचल पसार कर अम्मा, वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।

तुम घबरा कर आँख खोलतीं फिर भी खुश हो जातीं,
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी ही में पातीं।
इसी तरह कुछ खेला करते हम तुम धीरे-धीरे।
माँ कदम्ब का पेड़ अगर यह, होता यमुना तीरे।

- सुभद्रा कुमारी चौहान

Sunday, January 08, 2006

मधुशाला

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला;
पहले भोग लगा लूँ तुझको फिर प्रसाद जग पाएगा;
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।1।।

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ ?' असमंजस में है वह भोलाभाला;
अलग-अलग पथ बतलाते सब, पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।' ।6।।

सुन, कलकल, छलछल मधु - घट से गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रुनझुन, रुनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला;
बस आ पहुँचे, दूर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है;
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।10।।

एक बरस में एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाजी, जलती दीपों की माला;
दुनियावालो, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज मनाती मधुशाला।।26।।

लाल सुरा की धार लपट-सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी है;
पीड़ा में आनन्द जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।14।।

धर्म-ग्रंथ सब जला चुकी है जिसके अन्तर की ज्वाला,
मंदिर मस्जिद, गिरजे-सबको तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादरियों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।17।।

छोटे-से जीवन में कितना प्यार करूँ पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला'
स्वागत के ही साथ बिदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही, मेरी जीवन - मधुशाला।।66।।

- हरिवंशराय बच्चन

Saturday, November 19, 2005

अच्छा लगा जब ...

अनुपम दूबे ने मुझे यह बताया कि एक गूगल ग्रुप 'चिट्ठाकार' पर लोगों ने मेरे हिन्दी के कार्य को सराहा। उसी से प्रेरणा लेकर हिन्दी में ब्‍लॉगिंग करने को प्रेरित हुआ। फलस्वरूप आपके सामने है हिन्दी का मेरा पहला ब्‍लॉग।