कदम्ब का पेड़
यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ, होता यमुना तीरे,
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।
ले देतीं यदि मुझे बाँसुरी तुम दो पैसे वाली,
किसी तरह नीचे हो जाती यह कदम्ब की डाली।
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर, मैं चुपके-चुपके आता,
उस नीची डाली से अम्मा, ऊँचे पर चढ़ जाता।
वहीं बैठ फिर बड़े मज़े से मैं बांसुरी बजाता।
'अम्मा-अम्मा' कह वंशी के स्वर में तुम्हें बुलाता।
सुन मेरी वंशी को माँ, तुम इतनी खुश हो जातीं,
मुझे देखने काम छोड़कर तुम बाहर तक आतीं।
तुमको आया देख बाँसुरी रख मैं चुप हो जाता,
पत्तों में छिपकर धीरे से फिर बाँसुरी बजाता।
तुम हो चकित देखतीं चारों ओर, न मुझको पातीं,
तब व्याकुल-सी हो कदम्ब के नीचे तक आ जातीं।
पत्तों का मर्मर स्वर सुन जब ऊपर आँख उठातीं,
मुझको ऊपर चढ़ा देखकर कितना घबरा जातीं।
गुस्सा होकर मुझे डाटतीं, कहतीं नीचे आजा,
पर जब मैं न उतरता, हँसकर कहतीं - "मुन्ने राजा,
नीचे उतरो मेरे भैया! तुम्हें मिठाई दूँगी।
नये खिलौने माखन मिश्री दूध मलाई दूँगी।"
मैं हँस कर सबसे ऊपर की टहनी पर चढ़ जाता,
एक बार 'माँ' कह पत्तों में वहीं कहीं छिप जाता,
बहुत बुलाने पर भी माँ, जब मैं न उतरकर आता।
तब माँ, माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।
तुम आँचल पसार कर अम्मा, वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।
तुम घबरा कर आँख खोलतीं फिर भी खुश हो जातीं,
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी ही में पातीं।
इसी तरह कुछ खेला करते हम तुम धीरे-धीरे।
माँ कदम्ब का पेड़ अगर यह, होता यमुना तीरे।
- सुभद्रा कुमारी चौहान
1 Comments:
पूरी कविता, मेरे हिन्दी 'ब्लॉग् पर: http://devnagari.blogspot.com/2006/03/blog-post_27.html
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